चित्रा पटेल : रायपुर : छत्तीसगढ़ में एक समय था जब ग्रामीणों के चेहरे पर रोजगार की उम्मीद की किरण जगमगाती थी। गांव में ही रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए शुरू की गई रीपा योजना ने लोगों को आत्मनिर्भर बनाने का सपना दिखाया था। इस योजना के तहत बनाए गए वर्कशॉप में करोड़ों रुपए की महंगी – महंगी मशीनें लगाई गईं थीं, जिससे गांव में ही कई तरह के उत्पाद बनने लगे थे, लेकिन यह खुशी ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सकी।
सरकार बदलने के साथ ही रीपा योजना की तकदीर बदल गई और गतिविधियां ठप्प हो गईं। जो मशीनें ग्रामीणों के सपनों को साकार करने का वादा करती थीं, वे आज धूल की परत से ढंक गई और मशीने कबाड़ का ढेर बनकर रह गई हैं। करोड़ों रुपये की लागत से बनाए गए ये वर्कशॉप अब सफेद हाथी साबित हो रहे हैं।
यह देखकर लगता है कि जनता की गाढ़ी कमाई का इस तरह बर्बाद होना किसी अपराध से कम नहीं है। प्रशासन के सामने ही यह सब होता रहा और किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। सवाल उठता है कि आखिर क्यों इस योजना को बीच में ही छोड़ दिया गया? क्या सरकार के बदलने के साथ ही जनता की भलाई की योजनाओं को भी दफन कर दिया जाता है!
यह घटना एक बार फिर हमें याद दिलाती है कि विकास की योजनाएं तब तक सफल नहीं हो सकतीं जब तक कि उन्हें निरंतरता के साथ चलाया न जाए। राजनीतिक स्वार्थों के चलते विकास की योजनाओं को बंधक बनाना देश के लिए घातक है।
प्रदेश भर में रीपा योजना की दुर्दशा बखान करना एक उदाहरण से कम नहीं है कि कैसे इस योजना को भी राजनीतिक उठा-पटक का शिकार बनाया जा सकता है। रिपा योजना एक बखान करा रही है।
रीपा योजना पर क्या साय सरकार कुछ फैसला लेगी या क्या कबाड़ मशीनों को एक रूप रंग देगी यह जनता का सवाल उठ रहा है।